🕌 दीबाचा 🕋
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🌹अल्हदुलिल्लाहि रब्बिल, आलमीन ,खा़लिक़िस्समावाति वल, अर्दीना वस्सलातु वस्सलामु अला मन काना नबीयन व आदमु बैनल, माइ वत्तैय्यिबीन, अज्मलिल, अजमलीन, अकमलिल, अकमलीन, सैयदिना मुहम्मदिन व आलेही व अस्हाबेही व अहले बैतेही अज्मईन। 🌹
✳️ दीने इस्लाम को दुनिया में तशरीफ़ लाए हुए आज तक़्रीबन पौने चौदह सौ बरस गुज़रे, इस अरसा में इस पाक दीन ने हजा़रहा बलाओं से मुक़ाबला किया।
हुजूर अलैहिस्सलाम के इस लहलहाते हुए चमन पर बहुत सी तेज़ आंधियाँ आई और अपना, अपना जो़र दिखा कर चली गई, मगर अल्हम्दुलिल्लाह कि यह चमन इसी तरह सर सब्ज़ व शादाब रहा, इस आफ़ताब पर बारहा काले बादल और ग़ुबार आए, मगर यह आफ़ताब इसी तरह चमकता रहा और क्यों न होता कि रब तआ़ला खुद इस दीन का हाफ़िज़ व नासिर है खुद फ़रमाता है -
" इन्ना नहनु नज़्ज़लनज़्ज़िक्रा व इन्ना लहू लहाफ़िज़ून "
हमने ही कुरआ़न उतारा और हम ही इसके मुहाफ़िज़ हैं।
कभी इस पर यज़ीदी बादल आए और कभी हुज्जाजी गुबार कभी मामूनी ताक़त ने इसके सामने आने की जुरअत की, और कभी तातारी कुव्वतें इससे टकराईं, कभी खा़र्जी हमले ने इससे मुका़बला किया और कभी रफ़्ज़ की ताक़त ने इसको ज़ेर करने की कोशिश की मगर वह सब की सब इस पहाड़ से टकरा कर पाश, पाश हो गईं,
और यह पहाड़ इसी तरह अपनी जगह मज्बूती से का़यम रहा,
व अक़ामहल्लाहु व अदामहा अल्लाह तआ़ला,,
इसको दाइम व क़ायम रखे।
मगर इन तमाम फि़त्नों में ज़बरदस्त फ़ित्ना और तमाम मुसीबतों में ख़तरनाक मुसीबत वहाबियों नज़्दियों का फ़ित्ना था । जिसकी खबर मुख़बिरे सादिक नबी -ए- अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पहले ही दी थी, और तरह, तरह से इस फ़ित्ना से मुसलमानों को आगाह कर दिया था ।
चुनांचे मिशकात, जिल्द- दोम, बाब ज़िक्रिल, यमने वश्शाम, सफ़ा- 582, में बुखारी के हवाले से रिवायत है कि ~
हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर रादिअल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि एक दिन दरिया -ए- रहमत मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जोश में है, बारगाहे इलाही में हाथ उठा कर दुआ फरमाई जा रही है, अल्लाहुम्मा बारिक लना फ़ी शामिना ऐ अल्लाह, हमारे लिए हमारे शाम में बरकत दे।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 8
पार्ट -- 02 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दीबाचा 🕋
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अल्लाहुम्मा बारिक लना फ़ी यमीनेना
ऐ अल्लाह, हमको हमारे यमन में बरकत दे,
हाज़िरीन में से कुछ ने अर्ज़ किया
व फ़ी नज्दिना या रसूलल्लाह, दुआ फ़रमाएं कि हमारे नज्द में बरकत दे फिर हुजूर अलैहिस्सलाम ने वही दुआ फ़रमाई, शाम और यमन का जिक्र फ़रमाया मगर नज्द का नाम न लिया,
उन्होंने फिर तवज्जोह दिलाई कि व फ़ी नज्दिना हुजूर यह भी दुआ फरमाए कि नज्द में बरकत हो, ग़रज़ तीन बार यमन और शाम के लिए दुआएं फरमाई, बार, बार तवज्जोह दिलाने पर नज्द को दुआ न फरमाई,,
बल्कि आख़िर में फरमाया मैं इस अज़्ली महरूम ख़ित्ता को दुआ किस तरह फरमाऊँ, वहाँ तो ज़लज़ले और फ़ित्ने होंगे, और वहाँ शैतानी गरोह पैदा होगा ।
इससे मालूम हुआ कि हुजूर सैयदे आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की निगाहे पाक में दज्जाल के फ़ित्ना के बाद नज्द का फ़ित्ना था जिससे इस तरह ख़बर दे दी।
इसी तरह मिशकात जिल्द अव्वल किताबुल किसास बाब क़त्लु अहिलर्रद्द (स०.309) में ब, हवाला नसाई हज़रत अबू बरज़ह रज़ि, अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि -
हुजूर अलैहिस्सलाम एक बार कुछ माले ग़नीमत तक़्सीम फ़रमा रहे हैं, एक शख़्स ने पीछे से अर्ज़ किया या मुहम्मद, सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, आपने इस तक़सीम में इन्साफ़ न किया, हुजूर अलैहिस्लाम ने ग़ज़बनाक होकर फ़रमाया कि हमारे बाद तुमको हम से बढ़ कर कोई आदिल न मिलेगा,
फिर फरमाया कि आख़िर ज़माना में एक क़ौम इससे पैदा होगी जो कुरआन पढ़ेंगे मगर कुरआन उनके हलक़ से नीचे न उतरेगा और इस्लाम से ऐसे निकल जाएंगे जैसे तीर शिकार से, फिर फरमाया।
तरजमा -
यानी उनकी पहचान सर मुंडाना है, यह निकलते ही रहेंगे यहाँ तक कि उनकी आख़िरी जमाअत दज्जाल के साथ
होगी, अगर तुम उन से मिलो तो जान लो कि वह तमाम ख़िल्क़त में बदतर हैं ।
उसमें उनकी पहचान फरमाई गई है सर मुंडाना, आज भी वहाबी इससे खाली मुश्किल ही से मिलेंगे,
कहीं फरमाया कि बुत परस्तों को छोड़ेंगे और मुसलमानों को कत्ल करेंगे, देखो बुखारी जिल्द अव्वल किताबुल, अम्बिया मुत्तसिल किस्सा याजूज व माजूज।
मुस्लिम और मिशकात बाबुल, मोजज़ात फ़स्ले अव्वल, इसी जगह मिशकात में यह भी है लइन अदरकतुहुम ल, अक़्तुलन्नहुम क़त्ला आदिन अगर उन्हें हम पाते तो क़ौमे आद की तरह क़त्ल फरमा देते।
आज भी देवबन्दी आम तौर पर हिन्दुओं के साथ हैं, मगर नफ़रत करते हैं तो मुसलमानों से और उनके हमले हमेशा मुसलमानों पर खा़स कर अहले हरमैन पर ही हुए।।।।।।
पार्ट -- 03 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दीबाचा 🕋
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इस फरमाने आली के मुताबिक बारहवीं सदी में नज्द से मुहम्मद बिन अब्दुलवह्हाब पैदा हुआ, उसने क्या, क्या अहले हरमैन व दीगर मुसलमानों पर ज़ुल्म किए, उसकी दास्तान तो सैफुल, जब्बार और बवारिक़े मुहम्मदिया अला अरग़मातुन्नजदीया वग़ैरह कुतुबे तवारीख़ में देखा, उनके कुछ ज़ुल्म अल्लामा शामी ने अपनी किताब रद्दुल, मुख़्तार जिल्द सोम बाबुल, बुग़ात के शुरू में इस तरह ब्यान फरमाए हैं-
तरजमा जैसे कि हमारे ज़माना में अब्दुलवहाब के मानने वालों का वाक़या हुआ कि यह लोग नज्द से निकले और मक्का व मदीना शरीफ़ पर उन्होंने ग़ल्बा कर लिया ।
अपने को हंबली मज़हब की तरफ़ मन्सूब करते थे, लेकिन उनका अ़क़ीदा यह था कि सिर्फ़ हम ही मुसलमान हैं, और जो हमारे अ़क़ीदे के खिलाफ है वह मुशरिक है,
इसलिए उन्होंने अहले सुन्नत वल जमाअत का कत्ल जाइज़ समझा और उनके उलमा को क़त्ल किया, यहाँ तक कि अल्लाह ने वहाबियों की शौकत तोड़ी और उनके 🌆 शहरों को वीरान कर दिया, और इस्लामी लश्करों को उन पर फ़तह दी,
यह वाक़या 1233,हिजरी में हुआ,
सैफुल, जब्बार वग़ैरह में उनके ज़ुल्म बे, शुमार ब्यान फरमाए कि मक्का मुकर्रमा व मदीना तैयबा में बेगुनाहों को बे, दरेग़ क़त्ल किया और हरमैन शरीफ़ैन के रहने वालों की औरतों और लड़कियों से ज़िना किया, उनको ग़ुलाम बनाया उनकी औरतों को अपनी लौंडिया, सादाते किराम को बहुत क़त्ल व ग़ारत किया, मस्जिदे नबवी शरीफ़ के तमाम क़ालीन और झाड़ व फ़ानूस उठा कर नज्द ले गए, तमाम सहाब-ए-किराम और अहले बैते इज़ाम की
क़ब्रों को गिरा कर ज़मीन से मिला दिया,
यहाँ तक कि यह भी इरादा किया कि खा़स गुंबदे ख़ज़रा जिसके गिर्द रोज़ना सुबह व शाम मलाइका सलात व सलाम पढ़ते हैं उसको भी गिरा दिया जाए मगर जो शख़्स इस बुरी नीयत से रौज़-ए-पाक पर गया उस पर ख़ुदा-ए-पाक ने एक साँप मुक़र्रर फरमा दिया, जिसने उसको हलाक किया, और रब्बुल आलमीन ने अपने नबी की इस आख़िरी आरामगाह को उन से महफ़ूज़ रखा,
ग़र्ज़कि उनके ज़ुल्म बेहद तकलीफ़देह हैं जिनके ब्यान से कलेजा मुँह को आता है, यज़ीद ने अहले बैत की दुश्मनी उनकी ज़िन्दगी में ही की मगर तेरह सौ 💯 बरस के बाद सहाब-ए-किराम और अहले बैते इज़ाम को उनकी क़ब्रों में सताना उन वहाबियों के हाथ से हुआ,
अब भी जो कुछ इब्ने सऊद ने हरमैन शरीफ़ैन में किया वह हर हाजी पर रौशन है, कि मक्का मुकर्रमा में मैंने खुद अपनी आँखों से देखा कि किसी सहाबी की क़ब्र शरीफ़ का निशान भी नहीं मिलता कि कोई फ़ातिहा भी पढ़ ले, हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जाए विलादत में मैंने एक शामियाना लगा हुआ देखा जहाँ कि कुत्ते और गधे बेतकल्लुफ़ फिर रहे थे।।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 10
पार्ट -- 04 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दीबाचा 🕋
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उस जगह पहले एक कुब्बा बना हुआ था जहाँ लोग जाकर नमाज़ें पढ़ते थे और उसकी ज़ियारत करते थे, यह हज़रत आमिना ख़ातून का मकान था और उसी जगह इस्लाम का आफ़ताब चमका, मगर अब उसकी यह बेहुरमती की गई ।
यह तो थे अरब के वाक़ियात लेकिन हमको इस वक़्त हिन्दुस्तान से गुफ़्तगू करनी है दिल्ली में एक शख्स पैदा हुआ जिसका नाम था मौलवी इस्माईल, उसने मुहम्मद बिन अब्दुल, वहाब नज्दी की किताबुत्तौहीद का उर्दू में खुलासा किया, जिसका नाम रखा तक्वियतुल_ईमान और उसकी हिन्दुस्तान में इशाअत की,
वहाबी भी उन्हें शहीद कहते हैं क्योंकि यह हज़रत इसी तक्वियतुल_ईमान की बदौलत सरहदी पठानों के हाथों कत्ल हुए, देखो अनवारे आफ़ताब सदाक़त, मगर मशहूर किया कि सीखों के हाथों मरे।
आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैह ने फ़रमाया~
वह वहाबिया ने जिसे दिया है लक़ब शहीद व ज़बीह का,
वह शहीद लैल-ए-नज्द था वह ज़बीहे तेग़े ख़्यार है।
अगर सिखों के हाथों कत्ल हुए होते तो अमृतसर या मशिरक़ी पंजाब के किसी और 🌆 शहर में मारे जाते क्योंकि यही जगह सिखों का मरकज़ था,
सरहद तो पठानों का मुल्क है वहाँ यह मारे गए, मालूम हुआ कि उन्हें मुसलमानों ने कत्ल किया और उनकी लाश भी गा़यब कर दी, इसीलिए उनकी क़ब्र ही नहीं।
इस्माईल के मोतकेदीन दो गरोह बने, एक तो वह जिन्होंने इमामों की तक़्लीद का इंकार किया, जो ग़ैर मुक़ल्लिद या वहाबी कहलाते हैं, दूसरे वह जिन्होंने देखा कि इस तरह अपने को जा़हिर करने से मुसलमान हम से नफ़रत
करते हैं उन्होंने अपने को हन्फ़ी जा़हिर किया, नमाज़ रोज़े में हमारी तरह हमारे सामने आए उनको कहते हैं गुलाबी वहाबी या देवबन्दी ।
भला मेरे आक़ा व मौला महबूबे किब्रिया सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मोजज़ा तो देखो कि हुजूर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया था कि वहां से क़रनुश्शैतान यानी शैतानी गरोह निकलेगा, उर्दू में क़रनुश्शैतान का तरजमा है देवबन्द, उर्दू में देव कहते हैं शैतान को और बन्द का मतलब गिरोह ताबेदार, या यह इजा़फ़त मक़्लूबी है यानी बन्द देव शैतान की जगह यानी लेकिन इन दोनों फ़िर्कों के अक़ीदे बिल्कुल एक हैं, आमाल में कुछ जा़हिरी इख़्तिलाफ़ है दोनों मुहम्मद बिन अब्दुलवहाब को अच्छा जानते हैं, उसके अका़इद के हामी,
चुनांचे देवबन्दियों के पेशवा मौलवी रशीद अहमद गंहोही अपने फ़तावा रशीदिया जिल्द अव्वल किताबुत्तक़्लीद सफा़_119, में लिखते हैं~
" मुहम्मद इब्ने अब्दुलवहाब के मुक़्तदीयों को वहाबी कहते हैं, उनके अका़इद उम्दा थे और मज़हब उनका हंबली था अल्बत्ता उनके मिजा़ज में शिद्दत थी, और उसके मुक़्तदी अच्छे हैं मगर हाँ जो हद से बढ़ गए उनमें फ़साद आ गया है और अका़इद सबसे मुत्तहीद हैं, आमाल में फ़र्क़ हन्फ़ी, शाफ़ई ,मालिकी, हंबली है।
(रशीद अहमद)
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 11
पार्ट -- 05 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दीबाचा 🕋
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लेकिन मौजूदा ज़माना में ब-मुकाबला ग़ैर मुकल्लेदीन के ज़्यादा ख़तरनाक देवबन्दी हैं, क्योंकि आम मुसलमान उनको पहचान नहीं सकते, उन लोगों ने अपनी किताबों में हुजूर अलैहिस्सलाम की ऐसी तौहीनें की कि कोई खुला हुआ मुशरिक भी नहीं कर सकता, मगर फिर भी मुसलमानों के पेशवा बनते हैं, और इस्लाम के अकेले ठेकेदार ।
मौलवी अशरफ़ अली साहब थानवी ने हिफ्जुल_ईमान में हुजूर अलैहिस्सलाम के इल्म को जानवरों के इल्म की तरह बताया,
मौलवी ख़लील अहमद साहब अंबेठी ने अपनी किताब 📖 बराहीने क'आतेआ में शैतान और मलकुल, मौत का इल्म हुजूर अलैहिस्सलाम के इल्म से ज़्यादा बताया,
मौलवी इस्माईल साहब देहलवी ने नमाज़ में हुजूर अलैहिस्सलाम के ख़्याल को गधे और बैल 🐂 के ख़्याल से बदतर लिखा,
मौलवी क़ासिम साहब नानौतवी ने, तहज़ीरुन्नास में हुजूर अलैहिस्सलाम को खा़तमुन्नबीयीन यानी आख़िरी नबी
मानने से इंकार किया और कहा कि हुजूर अलैहिस्सलाम के बाद अगर और भी नबी आ जाएं तब भी खा़तमीयत में कुछ फ़र्क़ न आएगा।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 12
पार्ट -- 06 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दीबाचा 🕋
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खा़तम के माना हैं असल नबी, दीगर नबी हैं नबी आर्ज़ी, यही मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी ने कहा कि मैं बरोज़ी नबी हूँ,
ग़र्ज़ेकि मिर्ज़ा गुलाम अहमद इस मसला में उनका शागिर्दे रशीद हुआ,
इन साहिबों के यहाँ तौहीद के माना हैं अंबिया की तौहीन जैसे कि रवाफ़िज़ के यहाँ हुब्बे अली के माना हैं बुग्ज़ सहाब_ए_किराम, हालांकि यह तौहीद तो शैतानी तौहीद है, उसने हज़रत आदम की अज़मत से इंकार किया ग़ैरे खुदा के सामने न झुका, फिर जो उसका हश्र हुआ वह आज तक लोग देख रहे हैं कि हर जगह उसकी ला हौला से खा़तिर की जाती है।
इस्लामी तौहीद है अल्लाह तआला को एक जानना, उसके महबूबों की इज़्ज़त व अज़मत करना जिसकी तालीम है ला इलाहा इल्लल्लाहु मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह पहले हिस्से में अल्लाह की वहदानियत का इक़रार है, दूसरे में अज़्मते मुस्ताफ़ा का इज़्हार,
आजकल जिस जगह भी देखा गया मुसलमानों में अहले सुन्नत और देवबन्दियों में झगड़े पढ़े हुए हैं, हर जगह खाना जंगी है हर कारे ख़ैर को रोकने की कोशिश, कहीं इल्मे ग़ैब पर बहस हैं तो कहीं हुजूर अलैहिस्सलाम के हाज़िर व नाज़िर होने पर तकरार, कहीं महफिले मीलाद व फ़ातिहा पर बहस कहीं मज़ाराते औलिया अल्लाह पर कुब्बा बनाने पर मुनाज़रा, अगरचे उनमें से हर एक मसाइल में अहले सुन्नत ने आला दरजा की किताबें 📚 शाए
फ़रमाई जैसे मसलए तक़्लीद में इंतिसारुल_हक़ मुसन्निफ़ हजरत मौलाना इर्शाद हुसैन साहब रहमतुल्लाह अलैहि।।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 12
पार्ट -- 07 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दीबाचा 🕋
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मसलए इल्मे ग़ैब में अल_कलिमतुल_औलिया मुसन्निफ़ हज़रत सदरुल, अफ़ज़िल उस्ताज़ी व मुर्शिदी मौलाना अल, हाज सैयद मुहम्मद नईमुद्दीन साहब मुरादाबादी,
तीजा फ़ातिहा वग़ैरह में अनवारे सातिआ मुसन्निफ़ हज़रत मौलाना अब्दुस्समी साहब बेदिल रामपुरी
और मसाला हाज़िर व नाज़िर उर्स व ज़ियारते कुबूर व तमाम मसाइल में तस्नीफा़ते आला हज़रत मुजद्दिद मीअते हाज़िरह मौलाना अहमद रज़ा खाँ साहब बरैलवी कुद्देस सिर्रहुल ,अज़ीज़ वग़ैरह,
मगर ख्याल यह था कि कोई 📖 किताब ऐसी लिखी जाए जो कि इन तमाम बहसों की जामे हो, जिसके पास वह किताब हो वह तक़्रीबन हर मसअले में मुखा़लिफ़ से गुफ़्तगू कर सके और मुसलमानों के अका़इद को उन लोगों से बचा सके, इसलिए मैंने हस्बतन लिल्लाहि इस काम की हिम्मत की, हिम्मत तो कर दी मगर अपनी कम
इल्मी और बे बज़ाअती का मुझको पूरा पूरा अहसास है, शुरू करना मेरा काम है और इसको अंजाम पर पहुँचाना मेरे रब के करम पर ही है।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 13
पार्ट -- 08 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दीबाचा 🕋
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मैं अपने मोहतरम दोस्त जनाब मुंशी अहमद दीन साहब सेक्रेट्री अंजुमन ख़ुद्दामुस्सूफ़िया गुजरात का तहे दिल से मश्कूर हूँ जिन्होंने इस काम में मेरी पूरी-पूरी इमदाद फरमाइ कि इसके छपवाने का इंतिज़ाम फरमा दिया, खुदा तआला उनके माल व औलाद व ईमान में बरकतें दे।
इस किताब में हर मसला पर मुख़्तसर मगर मुकम्मल बहस की गई है जिन लोगों को ज़्यादा तफ़्सील मन्जूर हो तो वह मसल_ए_इल्मे_ग़ैब में अल्कलिमतुल-उलिया का मुताला करें कि ऐसी किताब इस मसला में आज तक नहीं लिखी गई,
इसी तरह दीगर बहसों में आला हज़रत बरैलवी कुद्देस सिर्रहुल, अज़ीज़ की किताबों 📚 का मुताला करें।
हिदायात
इस किताब में इन बातों का लिहाज़ रखा गया है-
(1). अपने दावा की वज़ाहत।
(2). उसके दलाइल कुरआन व हदीस और बुजुर्गाने दीन, मुहद्देसीश व मुफ़स्सेरीन के अक़्वाल से।
(3). उसकी ताईद मुखा़लिफ़ीन की 📚 किताबों से।
(4). मुखा़लिफ़ीन के एतराज़ात आयाते कुरआनिया और अहादीस व अक़्वाले फुक़हा से।
(5). एतराज़ात के जवाबात कुर आन व अहादीस व अक्वाले उल्मा की रौशनी में।
(6).अपने दावा के अक़्ली दलाइल।
(7). मुखा़लिफ़ीन के अक़्ली एतराज़ात।
(8).उनके अक़्ली जवाबात।
(9). इस बात का भी लिहाज़ रखा गया कि जहाँ तक हो सके किताबों का सफ, नम्बर नक़्ल किया जाए क्योंकि सफ बदल जाते हैं बल्कि बाब और फस्ल और अगर तफ़्सीर का हवाला हो तो पारा, सूरत और आयत।।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 13
पार्ट -- 09 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दीबाचा 🕋
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नोट~ मगर प्रुफ़ के वक़्त बहुक्म मौलाना अब्दुल_हकीम शरफ़ क़ादरी, बुख़ारी व मुस्लिम जिल्द अव्वल और मिश्कात शरीफ़ का सफ_नम्बर दे दिया गया है, हवाले में फ़ारुकिया बुक डिपो के मत्बूआत से मदद ली गई है,
नाज़िरीन अगर ग़ौर से इस 📖 किताब का मुताला करेंगे तो इंशाअल्लाह तआला इसको एक समुन्दर पाएंगे जिससे बेश कीमत मोती हासिल होंगे, इस किताब में सख़्त अल्फ़ाज़ी और कज बहसी से परहेज़ किया गया है अहले इंसाफ से उम्मीद है कि हक़ क़बूल करें और बातिल से बचें कि इसी में दीन व दुनिया की भलाई है
वमा तौफ़ीक़ी इल्ला बिल्लाहे अलैहि तवक्कल्तु व इलैहि उनीब
इस किताब का नाम हज़रत कि़ब्लाए आलम अमीरे मिल्लत शैखुल_मशाइख़ कुतुबुल_वक़्त आलिमे रब्बानी पीर सैयद जमाअत अली शाह साहब मुहद्दिस अली पूरी दामत बरकातुहुम अल_कुदसिया ने
जा, अल, हक़, व ज़हक़ल, बातिल
तज्वीज़ फ़रमाया है,
मैं निहायत फ़ख्र से इस किताब को इसी नाम से मौसूम करता हूँ और अपने रब से उम्मीद करता हूँ कि इस
किताब को इस्म बा, मुसम्मा फ़रमाए और अपने फ़ज़्ल व करम से इसको कुबूल फरमाए मेरे लिए कफ़्फ़ाराए सैय्यात बनाए और हुस्ने खा़तिमा नसीब फरमाए ।
आमीन
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 14
पार्ट -- 10, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 मुक़द्देमा 🕋
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चूंकि इस किताब में हर मसला के मुतअ़ल्लिक कुरआनी आयात पेश की जाएंगी और उन आयात की तफ़्सीर भी ब्यान होगी, इसलिए तफ़्सीरे कुरआन के मुत_अल्लिक नीची लिखी बातें लिहाज़ में रखना ज़रूरी हैं।
एक तो है कुरआन की तफ़्सीर, दूसरी कुरआन की तावील, तीसरी कुरआन की तहरीफ़। उनकी अलग-अलग तारीफ़ें हैं और अलग-अलग अहकाम ~
(1). कुरआन की तफ़्सीर अपनी राय से करना हराम है, बल्कि उसके लिए नक़्ल की ज़रूरत है, कुरआन की जाइज तावील अपने इल्म व मारिफ़त से करना जाइज़ और बाइसे सवाब है, कुरआन पाक की तहरीफ़ करना कुफ्र है।
तफ़्सीर उसे कहते कि कुरआने करीम के वह अहवाल ब्यान करना जो कि अक़्ल से मालूम न हो सकें। नक़्ल की उनमें ज़रूरत हो जैसे आयात का शाने नुजूल या आयात का नासिख़ व मन्सूख़ होना, अगर कोई शख्स बगैर हवाला नक़्ल किए अपनी राय से कह दे कि फलां आयत मन्सूख़ है या फलां आयत की यह शाने नुजू़ल है तो यह
मोतबर नहीं, और कहने वाला गुनहगार है।
(१)मिश्कात किताबुल_इल्म फ़स्ले दोम (सफा. 35) में है~
मन का़ला फ़िल_कुरआने बेरायही फ़ल्यतबव्ववु मक़्अदहू मिनन्नारे
जो आये उन शख्स कुरआन में अपनी राय से कुछ कहे वह अपनी जगह जहन्नम में बना ले, मिश्कात में उसी जगह है~
मन क़ाला फ़िल_कुरआने बेरायिही फ़असाबा फ़क़द अख़्तआ
जिस शख्स ने कुरआन में अपनी राय से कुछ कहा पस सही कह गया तो भी उस ने ग़लती की।
अब तफ़्सीरे कुरआन के चन्द मरतबे हैं, तफ़्सीरे कुरआन बिल, कुरआन, यह सब से पहले है इसके बाद तफ़्सीर कुरआन बिल अहादीस, क्योंकि हुजूर अलैहिस्सलाम साहिबे कुरआन हैं, उनकी तफ़्सीरे कुरआन निहायत ही आला, फिर कुरआन की तफ़्सीर सहाब_ए_किराम के क़ौल से ख़ुसूसन फुक़हा_ए_सहाबा और खुलफ़ा_ए_राशिदीन की तफ़्सीर ।
रही तफ़्सीरे कुरआन ताबईन या तबा ताबईन के क़ौल से, यह अगर रिवायत से है तो मोतबर वरना ग़ैर मोतबर माख़ूज़ अज़ ऐला_ए_कलिमतुल्लाह लिल, अल्लामा गोलड़वी कुद्देस सिर्रहू।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 15
पार्ट -- 11, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 मुक़द्देमा 🕋
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(2). तावीले कुरआन यह है कि आयाते कुरआनिया के मज़ामीन और उसकी बारीकियाँ ब्यान करे और सर्फ़ी व नहवी क़वाइद से इसमें तरह-तरह से निकात निकाले, यह अहले इल्म के लिए जाइज़ है, उनमें नक़्ल की ज़रूरत नहीं इसका सुबूत कुरआनी आयात और अहादीसे नब्वीया व अक़्वाले फुक़हा से है।
रब्बे करीम फ़रमाता है ~
तर्जमा तो क्या यह कुरआन में ग़ौर नहीं करते अगर यह ग़ैर खुदा के पास से होता तो जरूर इसमें बहुत इख़्लाफ़ पाते । #पारा: 5, सुरे: नासा
तफ़्सीर रूहुल-ब्यान में इस आयत के मातहत यतदब्बरूना की तफ़्सीर में फरमाते हैं यतअम्मलूना व यतबस्सरूना मा फ़ीहे यानी क्यों नहीं ग़ौर करते इसके माना में और क्यों नहीं ताम्मुल से देखते इन ख़ूबियों को
जो कुरआन में हैं।
मिश्कात किताबुल-किसास, फ़स्ल अव्वल, सफा: 300,, में है कि किसी साहब ने हज़रत अली रज़ि-अल्लाहु अन्हु से दरयाफ़्त किया कि क्या आपके पास कुर-आन के सिवा कुछ और भी अतीय-ए-मुस्तफा़ अलैहिस्सलातु वसल्लाम है तो फ़रमाया कि मा इन्दना इल्ला मा फ़िल, कुरआने इल्ला फ़हमन यूता रजुलुन फ़ी किताबेही हमारे पास इस कुर-आन के सिवा और कुछ नहीं, हाँ वह इल्म व फ़हम है जो किसी को किताबे इलाही के मुतअल्लिक़ अता कर दी जाती है।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 16
▫पार्ट -- 12, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 मुक़द्देमा 🕋
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इस हदीस के मातहत मिर्क़ात में है, वल, मुरादु मिन्हु मा युस्तंबतु बेहिल, मआनी व युदरिकु बेहिल, इशारातु वल, उलूमुल, ख़फ़ीयतु इस फ़हम से मुराद वह इल्म है जिससे कुर-आन के मानी निकाले जाएं और जिससे इशारात मालूम हों और छुपे हुए इल्म का पता लगे।
इस आयत और हदीस से मालूम हुआ कि कुरआनी मायने में ग़ौर करना और इल्म व अक़्ल से काम लेना इससे मसाइल का निकालना जाइज़ है।
हर जगह नक़्ल की ज़रूरत नहीं।
जुमल हाशियाए जलालैन में है ~
तर्जमा तफ़्सीर के लुग्वी मायने हैं ज़ाहिर करना और तावील के मायना हैं लौटना और इल्मे तफ़्सीर कुरआन पाक के उन हालात का जानना है जो अल्लाह की मुराद को बताएं, ताक़ते इंसानी के मुताबिक। फिर इसकी दो क़िस्में हैं। एक तो तफ़्सीर और तफ़्सीर वह है जो नक़्ल के बग़ैर न मालूम हो सके। और एक तावील, और तावील वह है जिसको अरबी काइदों से मालूम कर सकें।
लिहाज़ा तावील का त अल्लुक़ फ़हम (समझ) से है और तावील की राय से जाइज़ होने में और तफ्सीर के राय से
नाजाइज़ होने में राज़ यह है कि तफ्सीर तो खुदा_ए_पाक पर गवाही देना है और इसका यक़ीन करना है कि रब तआला ने इस कलिमा के यही मयना मुराद लिए है ।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 16
पार्ट -- 13, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 मुक़द्देमा 🕋
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और यह बग़ैर बताए जाइज़ नहीं, इसीलिए हाकिम ने फ़ैसला कर दिया के सहाबी की तफ़्सीर मरफूअ हदीस के हुक्म में है और तावील चन्द एहतमालात में से कुछ को तरजीह दे देने का नाम है, वह भी बिला यक़ीन।
मिर्कात शरह मिश्कात किताबुल, इल्म फ़स्ल दोम में मन क़ाला फ़िल. कुरआने बेरायही के तहत फरमाते है ~
तर्जमा यानी हदीस का मतलब यह है कि कुरआन के मानी या उसकी किरात में अपनी तरफ़ से कलाम करे लुग़त और जबान जानने वाले इमामों के क़ौल को तलाश न करे। शरई काइदों का लिहाज़ न रखे बल्कि इस तरह कह दे जिसको उसकी अक़्ल चाहे हालांकि यह मानी ऐसे हों कि जिनका समझना नक़्ल पर मौकूफ़ हो जैसे कि
शाने नाज़ूल और नासिख़ व मंसूख़।
तिर्मिज़ी जिल्द दोम किताबुल, तफ़्सीर के शुरू में है~
तर्जमा कुछ अहले इल्म सहाब, ए, किराम वग़ैरह से यही रिवायत है कि वह हज़रात इसमें बहुत सख़्ती करते थे कि कुरआन की तफ़्सीर बग़ैर इल्म की जाए।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 17
पार्ट -- 14, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 मुक़द्देमा 🕋
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इस हदीस के हाशिया में मज्म_उल_बिहार से नक़्ल फरमाया ~
तर्जमा यह तो जाइज़ नहीं कि इस इबारत की यह मुराद हो कि कोई भी कुरआन में बग़ैर सुने हुए कुछ कलाम ही न करे। क्योंकि सहाब_ए_किराम ने कुरआन की तफ़्सीर की और आपस में बहुत तरह उनमें इख़्तिलाफ़ रहा।
और उनकी हर बात तो सुनी हुई न थी, नीज़ फिर हुजूर अलैहिस्सलाम का यह दुआ फरमाना बेकार होगा कि ऐ अल्लाह, इनको दीनी फ़िक्ह, दे और इनको तावील सिखा दे।
और हज़रत इमाम ग़जा़ली ने इहया_उल_उलूम बाबे हश्तुम में फ़स्ल चहारुम इस मक़्सद के लिए मुकर्रर की है कि कुरआन का समझना बग़ैर नक़्ल भी जाइज़ है, वह फरमाते हैं कि कुरआन के एक ज़ाहिरी मतलब हैं और
एक बातिनी,
उलमा ज़ाहिरी मतलब की तहक़ीक़ करते हैं और सोफ़िया, ए, किराम बातिनी की,
हज़रत अली रज़ि अल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया कि अगर मैं चाहूं तो सूरह फ़ातिहा की तफ्सीर से 70, ऊंट भर दूँ, और हज़रत अली ने फ़रमाया कि जो शख़्स कुरआन समझ लेता है वह तमामी उलूम को ब्यान कर सकता है फिर जो हदीस में यह आया कि जो शख़्स अपनी राय से कुरआन में कहे वह ख़ताकार है।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 17
पार्ट -- 15, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 मुक़द्देमा 🕋
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इसका मतलब यही है कि जिन बातों का इल्म बग़ैर नक़्ल नहीं हो सकता उनको राय से ब्यान करना हराम है,
देखो इसकी पूरी बहस इहया_उल_उलूम शरीफ़ के उसी बाब में उसी फ़स्ल में और अइम्म_ए_दीन का कुरआनी आयात में बड़ा इख़्तिलाफ रहता है,
एक साहब किसी जगह वक़्फ़ करते हैं तो दूसरे और जगह, एक साहब उसी एक आयत से एक मसला निकालते हैं, दूसरे साहब उसके ख़िलाफ़ जैसे कि तोहमते ज़िना लगाने वाले की गवाही, मुतशाबिहात का इल्म वग़ैरह, तो
अगर आप अपने इल्म से कलामे इलाही में बिल्कुल कलाम नहीं कर सकते, हर - हर बात के लिए नक़्ल की ज़रूरत है तो यह इख़्तिलाफ़ कैसा ?
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 18
पार्ट -- 16, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 मुक़द्देमा 🕋
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(3). तहरीफ़ यह है कि कुरआन के ऐसे माना या मतलब ब्यान करे जो कि इज्मा_ए_उम्मत या फिर अक़ीद_ए_इस्लामिया या इज्मा_ए_मुफ़स्सेरीन के खिलाफ हो, या खुद तफ़्सीरे कुरआन के खिलाफ हो, और कहे कि इस आयत के वह मानी नहीं हैं बल्कि यह मानी हैं कि जो मैंने कहे, यह खुला हुआ कुफ्र है
जैसे कि आयाते कुरआनिया और किराते मुतवातिरह का इंकार कुफ्र है, ऐसे ही कुरआन के मुतवातिर माना का इंकार कुफ्र जैसे कि मौलवी क़ासिम साहब ने ख़ातमुन्नबीयीन के माना किए असली नबी, और माना आख़िरी नबी को ख़्याले अवाम यानी ग़लत कहा, और नबुव्वत की दो किस्में कर डालीं, असली और आर्ज़ी हालांकि उम्मत का इज्मा और अहादीस का इत्तिफ़ाक़ इस पर है कि ख़ातमुन्नबीयीन के माना हैं आख़िरी नबी और हुजूर अलैहिस्सलाम के जमाना में या बाद कोई नया नबी नहीं आ सकता, यह तहरीफ़ है,
इसी तरह कुरआन की जिन आयातों में ग़ैरल्लाह को पुकारने की मुमानिअत की गई है वहाँ मुफ़स्सेरीन का इत्तिफ़ाक़ है कि इससे मुराद ग़ैरे खुदा को पूजना है जैसे वला तदओ मिन दूनिल्लाहि मा ला यन्फ़उका वला यजुर्रुका खुदा के सिवा उन को न पुकारो जो नफ़ा व नुक़्सान न पहुँचा सकें।
और कुरआने करीम खुद इसकी तफ़्सीर फरमाता है व मन यद ओ मअल्लाहे इलाहन आख़िरा जो शख्स
खुदा के साथ दूसरे माबूद को पुकारे, अब इस तफ़्सीर और इज्मा मुफ़स्सेरीन के होते हुए जो कहे कि ग़ैरल्लाह को पुकारना मना है वह कुरआन में तहरीफ़ करता है इस बहस को खूब अच्छी तरह ख्याल में रखना चाहिए बहुत फ़ायदा मन्द है और आइंदा काम आएगी।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 18
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पार्ट -- 17, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 तक़्लीद की बहस 🕋
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तक़्लीद के बाब में पाँच बातें ख्याल में रहना ज़रूरी हैं~
(1). तक़्लीद के माना और इसकी किस्में ।
(2). तक़्लीद कौन सी ज़रूरी है और कौन सी मना ।
(3). तक़्लीद किस पर लाज़िम है और किस पर नहीं ।
(4). तक़्लीद के वाजिब होने के दलाइल ।
(5). तक़्लीद पर एतराज़ात और उनके मुकम्मल जवाबात।
इसलिए इस बहस के पाँच बाब किए जाते हैं ।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 19
पार्ट -- 18, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 बाब अव्वल 🕋
तक़्लीद के माना और इसके अक़्साम में
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तक़्लीद के दो माना हैं ~
(1). एक तो मानाए लुग़वी,
(2). दूसरा शरई।
लुग़वी माना हैं गले में हार या पट्टा डालना। तक़्लीद के शरई माना यह हैं कि किसी के कहने व करने को अपने ऊपर लाज़िमे शरई जानना यह समझ कर कि उसका कलाम और उसका काम हमारे लिए हुज्जत है, क्योंकि यह शरई मुहक़्क़िक़ है ।
जैसे कि हम मसाइले शरईया में इमाम साहब का क़ौल व फ़ेअल अपने लिए दलील समझते हैं और दलाइले शरईया में 👀 नज़र नहीं करते।
हाशिया हुसामी, बाब मुताबिअत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में सफा: 86, पर शरह मुख़्तसरुल, मनार से नक़्ल किया।
यही इबारत नूरुल_अनवार बहस तक़्लीद में भी है, तक़्लीद के माना हैं किसी शख्स का अपने ग़ैर की इताअत करना इसमें जो इसको कहते हुए या करते हुए सुन ले यह समझ कर कि वह अहले तहक़ीक़ में से है कि बग़ैर
दलील में 👀 नज़र किए हुए,
और इमाम ग़ज़ाली किताबुल_मुस्तस्फ़ा, जिल्द- दोम, सफा: 387 में फरमाते हैं ~
अत्तक़्लीदु हुवा क़बूलु क़ौलिन बिला हुज्जतिन
मुसल्लमुस सुबूत में है~
अत्तक़्लीदुल, अमलु बेक़ौलिल, ग़ैरे मिन ग़ैरे हुज्जतिन
तर्जमा वही जो ऊपर ब्यान हुआ, इस तारीफ़ से मालूम हुआ कि हुजूर अलैहिस्सलाम की इताअत करने को तक़्लीद नहीं कह सकते क्योंकि उनका हर क़ौल व फ़ेअल दलीले शरई है, तक़्लीद में होता है दलीले शरई को न देखना,
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 19
पार्ट -- 19, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 बाब अव्वल 🕋
तक़्लीद के माना और इसके अक़्साम में
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लिहाज़ा हम हुजूर अलैहिस्सलाम के उम्मती कहलाएंगे न कि मुक़ल्लिद।
इसी तरह सहाब_ए_किराम व अइम्म_ए_दीन हुजूर अलैहिस्सलाम के उम्मती हैं न कि मुक़ल्लिद ।
इसी तरह आलिम की इताअत जो आम मुसलमान करते हैं इसको भी तक़्लीद न कहा जाएगा, क्योंकि कोई भी इन आलिमों की बात या उनके काम को अपने लिए हुज्जत नहीं बताता, बल्कि यह समझ कर उनकी बात मानता है कि यह मौलवी आदमी हैं, 📖 किताब से देख कर कह रहे होंगे, अगर साबित हो जाए कि फ़त्वा ग़लत था, किताब के ख़िलाफ़ था तो कोई भी न माने बख़िलाफ़ क़ौले इमाम अबू हनीफ़ा के कि अगर वह हदीस या कुरआन या इज्मा_ए_उम्मत को देखकर मसला फरमा दें तो भी कबूल, और अपने क़्यास से हुक्म दें तो भी कबूल होगा, यह फ़र्क़ जरूर याद रहे।
तक़्लीद दो तरह की है, तक़्लीदे शरई और ग़ैर शरई , तक़्लीदे शर ई तो शरीअत के अहकाम में किसी की पैरवी करने को कहते हैं, जैसे नमाज़ रोज़े, हज, ज़कात, वग़ैरह के मसाइल में अइम्म_ए_दीन की इताअत की जाती है
और तक़्लीदे ग़ैर शरई है दूनियावी बातों में किसी की पैरवी करना, जैसे तबीब लोग इल्मे तिब में बू अली सीना की
और शाइर लोग दाग़, अमीर, या मिर्ज़ा ग़ालिब की या नहवी व सर्फी़ लोग सीबवह और ख़लील की पैरवी करते है इसी तरह हर पेशावर अपने पेशा में उस फ़न के माहिरीन की पैरवी करते हैं, यह तक़्लीदे दुनियावी है।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 20
पार्ट -- 20, | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 बाब अव्वल 🕋
तक़्लीद के माना और इसके अक़्साम में
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सूफ़िया_ए_किराम जो वज़ाइफ़ व आमाल में अपने मशाइख़ के क़ौल व फ़ेअल की पैरवी करते हैं वह तक़्लीदे दीनी तो है मगर तक़्लीदे शरई नहीं बल्कि तक़्लीद फ़ित्तरीक़त है इसलिए कि यह शर ई मसाइल हराम व हलाल में तक़्लीद नहीं, हां जिस चीज़ में तक़्लीद है वह दीनी काम है।
तक़्लीदे ग़ैर शरई अगर शरीअत के ख़िलाफ़ में है तो हराम है और अगर खिलाफे इस्लाम न हो तो जाइज़ है, बूढ़ी औरतें अपने बाप दादाओं की ईजाद की हुई शादी ग़मी की उन रस्मों की पाबन्दी करें जो ख़िलाफ़े शरीअत हैं तो हराम है,
और तबीब लोग जो तिब्बी मसाइल में बू अली सीना वग़ैरह की पैरवी करें जो कि मुख़ालिफ़े इस्लाम न हों तो जाइज़ है |
इसी पहली किस्म की हराम तक़्लीद के बारे में कुरआन करीम जगह जगह मना फ़रमाता है और ऐसी तक़्लीद करने वालों की बुराई फ़रमाता है~
तर्जमा और उसका कहना न मानो जिसका दिल हमने अपनी याद से ग़ाफ़िल कर दिया और वह अपनी ख़्वाहिश के पीछे चला, और उसका काम हद से ग़ुज़र गया,
व इन जाहदाका अला अन तुश्रिका बी मा लैसा लका बेही इल्मुन फ़ला तुतिअहुमा और अगर वह तुझ से कोशिश करें कि तू मेरा शरीक ठहरा, उसको जिसका तुझको इल्म नहीं तो उनका कहना न मान,
तर्जमा और जब उन से कहा जाए कि आओ इस तरफ़ जो अल्लाह ने उतारा और रसूल की तरफ़ कहें हमको वह बहुत है जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया, क्या अगरचे उनके बाप दादा न कुछ जानें और राह पर हों,
तर्जमा और जब उनसे कहा जाए कि अल्लाह के उतारे हुए पर चलो तो कहेंगे बल्कि हम तो उस पर चलेंगे जिस पर अपने बाप दादा को पाया।
इन में और इन जैसी आयतों में इसी तक़्लीद की बुराई फ़रमाई गई है जो शरीअत के मुकाबला में जाहिल बाप
दादों के हराम कामों में की जाए कि चूँकि हमारे बाप दादा ऐसा करते थे हम भी ऐसा करेंगे चाहे यह काम जाइज़ हो या ना जाइज़।
रही शरई तक़्लीद और अइम्म_ए_दीन की इताअत, इस से इन आयात का कोई तअल्लुक नहीं, इन आयातों से तक़्लीदे अइम्मा को शिर्क या हराम कहना महज़ बेदीनी है, इसका बहुत ख्याल रहे।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 20
पार्ट -- 21 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दूसरा बाब 🕋
किन मसाइल में तक़्लीद की जाती है किन में नहीं
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तक़्लीदे शरई में कुछ तफ़्सील है, शरई मसाइल तीन तरह के हैं~
(1). अकाइद,
(2). वह अहकाम जो साफ़, साफ़ कुरआन पाक या हदीस शरीफ़ से साबित हों इत्जिहाद को उनमें दख़ल न हो,
(3). वह अहकाम जो कुरआन या हदीस से ग़ौर व खोज करके निकाले जाए।
अकाइद में किसी की तक़्लीद जाइज़ नहीं,
तफ़्सीरे रुहुल_बयान आख़िर सूर_हूद ज़ेरे आयत नसीबहुम ग़ैरा मन्कूसिन में है~
तर्जमा अगर कोई हम से पूछे कि तौहीद व रिसालत वग़ैरह तुमने कैसे मानी, तो यह न कहा जाएगा कि हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ि अल्लाहु अन्हु के फरमाने से या कि फ़िक़्हे अकबर से बल्कि दलाइले तौहीद व रिसालत से क्योंकि अकाइद में तक़्लीद नहीं होती।
मुक़द्दमा शामी बहसु तक़्लीदुल, मफ़्ज़ूल मअल, अफ़्ज़ल में है~
तर्जमा यानी जिनका हम एतकाद रखते हैं फ़रई मसाइल के अलावा कि जिनका एतकाद रखना हर मुकल्लफ
पर बग़ैर किसी की तक़्लीद के वाजिब है वह अकाइद वही हैं जिन पर अहले सुन्नत व जमाअत हैं, वह अहले सुन्नत अशाइरह और मा तुरीदिया हैं
और तफ़्सीरे कबीर पारा दस ज़ेरे आयत,
फ़अजिरहु हत्ता यस्मआ कलामल्लाहे में है~~~
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 21
पार्ट -- 22 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दूसरा बाब 🕋
किन मसाइल में तक़्लीद की जाती है किन में नहीं
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ज़ाहिरी अहकाम में भी किसी की तक़्लीद जाइज़ नहीं, पांच नमाज़ें नमाज़ की रकअतें, तीस रोज़े, रोजे़ में खाना पीना हराम होना, यह वह मसाइल हैं जिनका सुबूत नस से सराहतन है इसलिए यह न कहा जाएगा कि नमाज़ें पाँच इसलिए हैं या रोज़े एक माह के इसलिए हैं कि फ़िक्ह, अकबर में लिखा है या इमाम अबू हनीफ़ा ने फरमाया है बल्कि इसके लिए कुर आन व हदीस से दलाइल दिए जाएंगे।
जो मसाइल कुरआन व हदीस या इज्मा_ए_उम्मत से इज्तिहाद व इस्तिंबात करके निकाले जाएं उनमें ग़ैर मुज्तहिद पर तक़्लीद करना वाजिब है ।
मसाइल की जो हमने तक़्सीम कर दी और बता दिया कि कौन से मसाइल तक़्लीद यह हैं और कौन से नहीं, इसका बहुत लिहाज़ रहे ।
बहुत से मौका पर ग़ैर मुक़ल्लिद एतराज करते हैं कि मुक़ल्लिद को हक़ नहीं होता कि दलाइल से मसाइल
निकाले, फिर तुम लोग नमाज़ व रोज़े के लिए कुरआनी आयतें या अहादीस क्यों पेश करते हो इसका जवाब भी इस बात में आ गया कि रोज़ा व नमाज़ की फ़र्ज़ीयत तक़्लीदी मसाइल से नहीं, यह भी मालूम हुआ कि सिवाए अहकामे खबर वग़ैरह में तक़्लीद न होगी जैसे कि मसलए कुफ्रे यजीद वग़ैरह, और क़्यासी मसाइल में फुकहा का कुरआन व हदीस से दलाइल पेश करना सिर्फ माने हुए मसाइल की ताईद के लिए होता है, वह मसाइल पहले ही से क़ौले इमाम से माने हुए होते हैं, तो बिला नजर फ़िद्दलील के यह मानी नहीं कि मुक़ल्लिद दलाइल देखे ही नहीं, बल्कि यह दलाइल से मसाइल हल न करे।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 22
पार्ट -- 23 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 तीसरा बाब 🕋
किस पर तक़्लीद करना वाजिब है और किस पर नहीं
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मुकल्लफ़ मुसलमान दो तरह के हैं एक मुज्तहिद, दूसरे गैर मुजाहिद।
मुज्तहिद वह है जिसमें इस कद्र इल्मी लियाक़त और क़ाबलीयत हो कि कुरआनी इशारात व राज़ों को समझ सके, और कलाम के मक़्सद को पहचान सके, इससे मसाइल निकाल सके, नासिख़ व मंसूख़ का पूरा इल्म रखता हो, इल्मे सर्फ़ व नहव व बलाग़त वग़ैरह में उसको पूरी महारत हासिल हो, अहकाम की तमाम आयतों और अहादीस पर उसकी 👀 नज़र हो, इसके अलावा ज़की और ख़ुश फ़हम हो, देखो तफ़्सीराते अहमदिया वग़ैरह
और जो कि इस दरजा पर न पहुँचा हो वह ग़ैर मज्तहिद या मुक़ल्लिद है, ग़ैर मुज्तहिद पर तक़्लीद ज़रूरी है मुज्तहिद के लिए तक़्लीद मना,
मुज्तहिद के छे:6 तब्के हैं
(1). मुज्तहिद फ़िश शरअ।
(2). मुज्तहिद फ़िल, मज़हब।
(3). मुज्तहिद फ़िल, मिसाइल।
(4). अस्हाबुत्तख़रीज।
(5). अस्हाबुत्तर्जीह।
(6). अस्हाबुत्तमीज़।
मुक़द्दमा शामी बहस तब्क़ातुल_फुक़हा,,
(1). मुज्तहिद फ़िश शरअ ~
वह हज़रात हैं जिन्होंने इज्तिहाद करने के क़वाइद बनाए जैसे चारों इमाम अबू हनीफ़ा, शाफ़ई, मालिक, अहमद बिन हंबल रज़ि अल्लाह अन्हुम अज्म ईन।
(2). मुज्तहिद फ़िल मज़हब ~
वह हज़रात हैं जो इन उसूल में तक़्लीद करते हैं, और इन उसूल से मसाइले शरईया फ़रईया खुद निकाल सकते हैं।
जैसे इमाम अबू यूसुफ़ व मुहम्मद व इब्ने मुबारक रहमतुल्लाह अज्मईन कि यह क़वाइद में हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ि अल्लाह अन्हु के मुक़ल्लिद हैं और मसाइल में खुद मुज्तहिद।।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 22
पार्ट -- 24 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 तीसरा बाब 🕋
किस पर तक़्लीद करना वाजिब है और किस पर नहीं
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(3). मुज्तहिद फ़िल_मसाइल ~ वह हज़रात हैं जो क़वाइद और मसाइले फरईया दोनों में मुक़ल्लिद हैं मगर वह मसाइल जिनके मुतअल्लिक़ अइम्मा की वज़ाहत नहीं मिलती उनको कुरआन व हदीस वग़ैरह दलाइल से निकाल सकते हैं जैसे इमाम तहावी और क़ाज़ी खाँ, शम्सुल, अइम्मा सरख़सी वग़ैरह।
(4). अस्हाबे तख़्रीज ~ वह हज़रात हैं तो इज्तिहाद तो बिल्कुल नहीं कर सकते, हां अइम्मा में से किसी के मुख्तसर क़ौल की तफ़्सील फ़रमा सकते हैं, जैसे इमाम करख़ी वग़ैरह।
(5). अस्हाबे तरजीह ~ वह हज़रात हैं जो इमाम साहब की चन्द रिवायात में से बाज़ को तरजीह दे सकते हैं यानी अगर किसी मसला में हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ि अल्लाह अन्हु के दो क़ौल रिवायत में आए तो उनमें किस को तरजीह दें वह कर सकते हैं, इसी तरह जहाँ इमाम साहब और साहिबैन का इख़्तिलाफ़ हो तो किसी के क़ौल को तरजीह दे सकते है कि हाज़ा औला या हाज़ा असह वग़ैरह जैसे साहिबे कुदूरी और साहिबे हिदायह।
(6). अस्हाबे तमीज़ ~ वह हज़रात हैं जो जा़हिर मज़हब और रिवायाते नादिरह इसी तरह क़ौले ज़ईफ़ और क़वी और ज़्यादा मज़बूत में फ़र्क़ कर सकते हैं कि अक़वाले रदशुदा और रिवायाते ज़ईफ़ा को तर्क कर दें, और सही
रिवायात और मोतबर क़ौल को लें, जैसे कि साहिबे कन्ज और साहिबे दुर्रे मुख़्तार वग़ैरह।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 23
पार्ट -- 25 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 तीसरा बाब 🕋
किस पर तक़्लीद करना वाजिब है और किस पर नहीं
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जिनमें इन छ: वस्फों में से कुछ भी न हों, वह मुक़ल्लिद महज़ हैं, जैसे हम और हमारे ज़माना के आम उलमा उनका सिर्फ यही काम है कि 📖 किताब से मसाइल देख कर लोगों को बताएं ।
हम पहले अर्ज़ कर चुके हैं कि मुज्तहिद को तक़्लीद करना हराम है, तो किसी की तक़्लीद न करेंगे और इससे ऊपर वाले दरजा में मुक़ल्लिद होंगे जैसे इमाम अबू यूसुफ़ व मुहम्मद रहमहुल्लाहु तआला कि यह हज़रात उसूल व क़वाइद में तो इमाम आज़म रहमतुल्लाह अलैहि के मुक़ल्लिद हैं और मसाइल में चूंकि खुद मुज्तहिद हैं इसलिए उनमें मुक़ल्लिद नहीं।
हमारी इस तक़रीर से ग़ैर मुक़ल्लिद का यह सवाल भी उठ गया कि जब इमाम अबू यूसुफ़ व मुहम्मद अलैहिमर्रहमा: हन्फी़ हैं और मुक़ल्लिद हैं तो इमाम अबू हनीफ़ा रहमतुल्लाह अलैहि की जगह-जगह मुख़ालफ़त क्यों करते हैं, तो यही कहा जाएगा कि उसूल व क़वाइद में यह हज़रात मुक़ल्लिद हैं इसमें मुख़ालिफ़त नहीं करते और फ़ुरूई मसाइल में मुख़ालिफ़त करते हैं, उनमें खुद मुज्तहिद हैं वह किसी के मुक़ल्लिद नहीं।
यह सवाल भी उठ गया कि तुम बहुत से मसाइल में साहिबैन के क़ौल पर फ़तवा देते हो, और इमाम अबू हनीफ़ा रहमतुल्लाह अलैहि के क़ौल को छोड़ते हो फिर तुम हन्फ़ी कैसे, जवाब आ गया कि बाज़ दरजा के फ़ुकहा
अस्हाबे तरजीह भी हैं जो चन्द क़ौले में से बाज़ को तरजीह देते हैं इसीलिए हम को उन फुकहा का तरजीह दिया हुआ जो क़ौल मिला उस पर फ़तवा दिया गया।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 23
पार्ट -- 26 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 तीसरा बाब 🕋
किस पर तक़्लीद करना वाजिब है और किस पर नहीं
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यह सवाल भी उठ गया कि तुम अपने को हन्फ़ी फिर क्यों कहते हो यूसुफ़ी या मुहम्मद या इब्ने मुबारकी कहो, क्योंकि बहुत सी जगह तुम उनके क़ौल पर अमल करते हो इमाम अबू हनीफ़ा का क़ौल छोड़ कर ।
जवाब यही हुआ कि चूंकि अबू यूसुफ़ व मुहम्मद व इब्ने मुबारक रहमहुमुल्लाह तआला के तमाम अक़्वाल इमाम अबू हनीफ़ा अलैहिर्रहमा, के उसुल और क़वानीन पर बने हैं, लिहाज़ा इनमें से किसी भी क़ौल को लेना दरहक़ीक़त इमाम साहब ही के क़ौल को लेना है, जैसे हदीस पर अमल दरहक़ीक़त कुर आन पर ही अमल है कि रब त आल ने इसका हुक्म दिया है।
मसलन इमाम आज़म रहमतुल्लाह अलैहि फ़रमाते हैं कि कोई हदीस सही साबित हो जाए तो वही मेरा मज़हब है, अब अगर कोई मुज्तहिद फ़िल_मज़हब कोई सही हदीस पाकर उस पर अमल करे तो वह इससे ग़ैर मुक़ल्लिद न होगा बल्कि हन्फ़ी ही रहेगा, क्योंकि उसने हदीस पर इमाम साहब के इस क़ाइदे से अमल किया,
यह पूरी बहस देखो मुक़द्दमा शामी मतलब सहहा अनिल, इमामे इज़ा सहहल, हदीस फ़हुवा मज़हबी
इमाम साहब के इस क़ौल का मतलब यह भी हो सकता है कि जब कोई हदीस सही साबित हुई है तो वह मेरा
मज़हब बनी यानी हर मसला और हर हदीस में मैं ने बहुत जिरह क़दह और तहक़ीक़ की है, तब उसे इख़्तियार किया, चुनांचे हज़रत इमाम के यहाँ हर मसला की बड़ी छान बीन होती थी, मुज्तहिद शागिर्दों से निहायत तहक़ीक़ गुफ्तगू के बाद इख़्तियार फरमाया जाता था।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 24
पार्ट -- 27 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 तीसरा बाब 🕋
किस पर तक़्लीद करना वाजिब है और किस पर नहीं
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अगर यह मुख़्तसर तक़रीर ख्याल में रखी गई तो बहुत मुश्किलों को इंशाअल्लाह हल कर देगी, और बहुत काम आएगी।
कुछ ग़ैर मुक़ल्लिद कहते हैं कि हम में इज्तिहाद करने की कुव्वत है लिहाज़ा हम किसी की तक़्लीद नहीं करते, इसके लिए बहुत तवील गुफ़्तगू की ज़रूरत नहीं, सिर्फ यह दिखाना चाहता हूँ कि इज्तिहाद के लिए किस क़द्र इल्म की ज़रूरत है और इन हज़रात को वह कुव्वते इल्मी हासिल है या नहीं।
हज़रत इमाम राज़ी, इमाम ग़ज़ाली वग़ैरह इमाम तिर्मिज़ी और इमाम दाऊद वग़ैरह हुजूर ग़ौसे पाक, हज़रत बायज़ीद बुस्तामी, शाह बहा_उल_हक़ नक़्शबन्द इस्लाम में ऐसे पाए के उलमा और मशाइख़ गुज़रे कि इन पर अहले इस्लाम जिस क़द्र भी फ़ख्र करें कम है ।
मगर इन हज़रात में से कोई साहब भी मुज्तहिद न हुए बल्कि सब मुक़ल्लिद हुए, ख़्वाह इमाम शाफ़ ई के मुक़ल्लिद हों या इमाम अबू हनीफ़ा के रज़ि अल्लाहु अन्हुम अज्मईन, ज़माना मौजूदा में कौन उनकी क़ाबलीयत का है, जब उनका इल्म मुज्तहिद बनने के लिए काफ़ी न हुआ तो जिन बेचारों को अभी हदीस की 📚 किताबों के
नाम लेना भी न आते हों वह किस शुमार में हैं।
एक साहब ने दावा इज्तिहाद किया था, मैंने उनसे सिर्फ इतना पूछा कि सूर:तकासुर से किस क़द्र मसाइल आप निकाल सकते हैं, और इसमें हकीकत, मजाज़, सरीह व किनाया ज़ाहिर व नस कितने हैं, इन बेचारों ने इन चीज़ों के नाम भी न सुने थे।।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 24
पार्ट -- 28 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 चौथा बाब 🕋
तक़्लीद वाजिब होने के दलाइल में
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इस बाब में हम दो फ़स्लें लिखते हैं, पहली फ़स्ल में तो सिर्फ तक़्लीद के दलाइल हैं, दूसरी में तक़्लीदे शख़्सी के दलाइल।
फ़स्ले अव्वल ~ तक़्लीद का वाजिब होना कुरआनी आयात और अहादीसे सहीहा और अमले उम्मत और अक़्वाले मुफ़स्सेरीन से साबित है, तक़्लीद मुतलक़न भी और तक़्लीदे मुज्तहेदीन भी एक तक़्लीद का सुबूत है, इहिदनस सिरातल मुस्तक़ीम सिरातल्लज़ी न अनअमत अलैहिम. सूर:फा़तिहा
तर्जमा - हम को सीधा रास्ता चला, उनका रास्ता जिन पर तूने एहसान किया,
इससे मालूम हुआ कि सिराते मुस्तक़ीम वही है जिस पर अल्लाह के नेक बन्दे चले हों, और तमाम मुफ़स्सेरीन, मुहद्देसीन, फुक़हा, औलिया, अल्लाह, ग़ौस व कुतुब व अब्दाल अल्लाह के नेक बन्दे हैं वह सब ही मुक़ल्लिद गुज़रे लिहाज़ा तक़्लीद ही सीधा रास्ता हुआ।
कोई मुहद्दीस व मुफ़स्सिर, वली ग़ैर मुक़ल्लिद न गुज़रा, ग़ैर मुक़ल्लिद वह है जो मुज्तहिद न हो फिर तक़्लीद न
करे, जो मुज्तहिद हो कर तक़्लीद न करे वह ग़ैर मुक़ल्लिद नहीं, क्योंकि मुज्तहिद को तक़्लीद करना मना है।
(2). ला युकल्लिफुल्लाहु नफ़्सन इल्रा वुरअहा (सूर, बकर)
तर्जमा - अल्लाह किसी जान पर बोझ नहीं डालता मगर उसकी ताक़त भर ।
इस आयत से मालूम हुआ कि ताक़त से ज्यादा काम की ख़ुदा तआला किसी को तक़्लीफ़ नहीं देता, तो जो शख्स इत्तिहाद न कर सके और कुरआन से मसाइल न निकाल सके उससे तक़्लीद न कराना और उससे इस्तिबात (मसाइल निकालना) कराना ताक़त से ज्यादा बोझ डालना है ।
जब गरीब आदमी पर ज़कात और हज फ़र्ज़ नहीं है तो बे, इल्म पर मसाइल व इस्तिबात करना क्यों कर ज़रूरी होगा।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 25
पार्ट -- 29 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 चौथा बाब 🕋
तक़्लीद वाजिब होने के दलाइल में
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(3). वस्साबिकूनल अव्वलून मिनल मुहाजिरीना वल अंसारे वल्लज़ीना तबऊहुम बे एहसानिन रज़ि अल्लाहु अन्हुम व रज़ु अन्हु
और सब में अगले पिछले मुहाजिर व अंसार और जो भलाई के साथ उनके पैरू हुए अल्लाह उन से राज़ी और वह अल्लाह से राज़ी।
मालूम हुआ कि अल्लाह उनसे राज़ी है जो मुहाजिरीन और अंसार की इत्तेबा यानी तक़्लीद करते हैं, यह भी तक़्लीद हुई।
(4). अतीउल्लाहा व अतीउर्रसूला व ऊलिल अम्रे मिन्कुम।
इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और हुक्म वालों की जो तुम में से हों।
इस आयत में तीन ज़ातों की इताअत का हुक्म दिया गया, अल्लाह की कुरआन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की,, हदीस,, अम्र वालों की,, फ़िक़ह,, व इस्तिंबात के उलमा,,
मगर कलिमा *अतीउल्लाह* दो जगह लाया गया, अल्लाह के लिए एक और रसूल अलैहिस्सलाम और हुक्म
वालों के लिए एक, क्योंकि अल्लाह की सिर्फ उसके फ़रमाने में ही इताअत की जाएगी न कि उसके फ़ेअल में और न उसके सुकूत में, वह कुफ़्फा़र को रोज़ी देता है कभी उनको ज़ाहिरी फ़तह देता है वह कुफ्र करते हैं मगर उनको फ़ौरन अज़ाब नहीं भेजता, हम इसमें रब तआला की पैरवी नहीं कर सकते कि कुफ़्फा़र की इमदाद करें ।
ब_ख़िलाफ़ नबी अलैहिस्सलाम व इमाम मुज्तहिद के कि, उनका हर हुक्म उनका हर काम और उनका किसी को कुछ काम करते हुए देख कर ख़ामोश होना तीनों चीज़ों में पैरवी की जाएगी।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 26
पार्ट -- 30 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 चौथा बाब 🕋
तक़्लीद वाजिब होने के दलाइल में
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इस फ़र्क़ की वजह से दो जगह अतीऊ फरमाया। अगर कोई कहे कि अम्र वालों से मुराद सुल्ताने इस्लामी है तो सल्ताने इस्लामी की इताअत शरई अहकाम में की जाएगी न कि ख़िलाफ़े शरअ चीज़ों में, और सुल्तान वह शरई अहकाम उलमा मुज्तहेदीन ही से मालूम करेगा, हुक्म तो असल में फ़क़ीह का होता है, इस्लामी सुल्तान महज़ उसका जारी करने वाला होता है, तमाम रिआया का हाकिम बादशाह और बादशाह का हाकिम आलिम मुज्तहिद, लिहाज़ा नतीजा वही निकला कि ऊलिल अम्रे उलमा_ए_मुज्तहेदीन ही हुए, और अगर बादशाहे इस्लामी भी मुराद लो जब भी तक़्लीद तो साबित हो ही गई आलिम की न हुई बादशाह की हुई।
यह भी ख़्याल रहे कि आयत में इताअत से मुराद शरई इताअत है। एक नुक्ता इस आयत में यह भी है कि अहकाम तीन तरह के हैं साफ़-साफ़ कुरआन से साबित जैसे कि जिस औरत ग़ैर हामिला का शौहर मर जाए तो उसकी इद्दत चार माह दस दिन है, उसके लिए हुक्म हुआ अतीउल्लाहा
दूसरे दो जो साफ़-साफ़ हदीस से साबित हैं, जैसे कि चांदी सोने का ज़ेवर मर्द को पहनना हराम है इसके लिए
फरमाया व अतीउर्रसूला
तीसरे वह जो न तो सराहतन (साफ़-साफ़ ) कुरआन से साबित हैं न हदीस से जैसे कि औरत से इग़लाम करने की हुर्मते क़तई उसके लिए फरमाया गया ऊलिल अम्रे मिन्कुम तीन तरह के अहकाम और तीन हुक्म।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 26
पार्ट -- 31 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 चौथा बाब 🕋
तक़्लीद वाजिब होने के दलाइल में
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(5). फ़रअलू अहलज़्ज़िक्रे इन कुन्तुम ला तालमून. तो ऐ लोगों ! इल्म वालों से पूछो अगर तुमको इल्म नहीं
इस आयत से मालूम हुआ कि जो शख्स जिस मसला को न जानता हो वह अहले इल्म से दरयाफ़्त करे।
वह इज्तिहादी मसाइल जिनके निकालने की हम में ताक़त न हो मुज्तहेदीन से दरयाफ़्त किए जाएंगे, कुछ लोग कहते हैं कि इससे मुराद तारीख़ी वाक़ेआत हैं जैसा कि ऊपर की आयत से साबित है लेकिन यह सही नहीं, इसलिए कि इस आयत के कलिमात मुतलक़ बग़ैर क़ैद के हैं और पूछने की वजह है न जानना, तो जिस चीज़ को
हम न जानते हों उसका पूछना लाज़िम है।
(6). वत्तबिअ सबीला मन अनाबा इलैया और उसकी राह चल जो मेरी तरफ रुजू लाया।
इस आयत से भी मालूम हुआ कि अल्लाह की तरफ़ रुजू करने वालों की इत्तेबा तक़्लीद ज़रूरी है, यह हुक्म भी आम है, क्योंकि आयत में कोई क़ैद नहीं।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 27
पार्ट -- 32 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 चौथा बाब 🕋
तक़्लीद वाजिब होने के दलाइल में
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(7). तर्जमा और वह जो अर्ज़ करते हैं कि ऐ हमारे रब हमको दे हमारी बीवियों और हमारी औलाद से आँखों में ठंडक और हमको परहेज़गारों का पेशवा बना।
इस आयत की तफ़्सीर में तफ़्सीर मुआलिमुत्तंज़ील में है-
फ़नक़्तदी बिल, मुत्तक़ीना व यक़्तदी बिनल, मुत्तकून
हम परहेज़गारों की पैरवी करें और परहेज़गार हमारी पैरवी।
इस आयत से भी मालूम हुआ कि अल्लाह वालों की पैरवी और उनकी तक़्लीद ज़रूरी है।
(8). तर्जमा तो क्यों न हुआ कि उनके हर गरोह में से एक जमाअत निकले कि दीन की समझ हासिल करें और वापस आकर अपनी क़ौम को डर सुनाएं इस उम्मीद पर कि वह बचेंअ।
इस आयत से मालूम हुआ कि हर शख्स पर मुज्तहिद बनना ज़रूरी तो नहीं, बल्कि कुछ तो फ़क़ीह बनें और कुछ दूसरों की तक़्लीद करें।
(9). तर्जमा और अगर इसमें रसूल और अम्र वाले लोगों की तरफ़ रुजू करते तो ज़रूर इनमें से उसकी हक़ीक़त
जान लेते वह जो इस्तिंबात करते हैं।
इससे साफ़ तौर पर मालूम हुआ कि अहादीस और अख़्बार कुर आनी आयात को पहले इस्तिंबात करने वाले उलमा के सामने पेश करें, फिर जिस तरह वह फरमा दें उस पर अमल करे, ख़बर से बढ़ कर कुरआन व हदीस है, लिहाज़ा इसका मुज्तहिद पर पर पेश करना ज़रूरी है।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 27
पार्ट -- 33 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 चौथा बाब 🕋
तक़्लीद वाजिब होने के दलाइल में
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(10). तर्जमा यौमा नदऊ कुल्ला उनासिन बिइमामेहिम जिस दिन हर जमाअत को उसके इमाम के साथ बुलाएंगे।
इसकी तफ़्सीर में तफ़्सीर रुहुल_ब्यान में है औ मुक़द्दमिन फ़िद्दीने फ़युक़ालु या हनफ़ीयुन या शाफ़ईयुन ये इमाम दीनी पेशवा है पस क़्यामत में कहा जाएगा कि ऐ हन्फ़ी ऐ शाफ़ई ।
इससे मालूम हुआ कि क़्यामत के दिन हर इंसान को उसके इमाम के साथ बुलाया जाएगा, यूँ कहा जाएगा कि ऐ हन्फ़ीयों, ऐ शाफ़इयों, ऐ मालकीयों, चलो तो जिसने इमाम ही न पकड़ा उसको किसके साथ बुलाया जाएगा उसके बारे में सूफिया_ए_किराम फ़रमाते हैं कि जिसका कोई इमाम नहीं उसका इमाम शैतान है।
(11). तर्जमा यानी जब उन से कहा जाता है कि ऐसा ईमान लाओ जैसा यह मुख़्लिस मोमिन ईमान लाए तो कहते
हैं कि हम ऐसा ईमान लाएं जैसा यह बेवक़ूफ़ ईमान लाए।
मालूम हुआ कि ईमान भी वही मोतबर है जो सालेहीन का सा हो, तो मज़हब भी वही ठीक है जो नेक बन्दों की तरह हो और वह तक़्लीद है।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 28
पार्ट -- 34 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 चौथा बाब 🕋
अक़्वाले मुफ़स्सेरीन व मुहद्देसीन
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दारमी बाबुल_इक़्तिदा बिल_उलमा में है~
तर्जमा ख़बर दी हमको याला ने उन्होंने कहा कि मुझसे कहा अब्दुल_मलिक ने उन्होंने अता से रिवायत की कि इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और अपने में से अम्र वालों की फरमाया अता ने ऊलुल_अम्र इल्म और फ़िक़्हा वाले हज़रात हैं।
तफ़्सीर ख़ाज़िन ज़ेरे आयत~
तर्जमा तुम उनसे पूछो जो मोमिन हैं और कुरआन जानने वाले उलमा हैं।
तफ़्सीर दुर्रे मन्सूर इसी आयत फ़रअलू अहलज़्ज़िक़्रे की तफ़्सीर में है~
तर्जमा इब्ने मरदुव्विया ने हज़रत अनस से रिवायत की फरमाते हैं कि मैंने हुजूर अलैहिस्सलाम से सुना कि फरमाते थे कि बाज़ शख्स नमाज़ पढ़ते हैं, रोज़े रखते हैं, हज और जिहाद करते हैं, हालांकि वह मुनाफ़िक़ होते
हैं।
अर्ज़ किया कि या रसूलुल्लाह, किस वजह से इनमें निफ़ाक़, नाइत्तेफ़ाक़ी आ गया । फ़रमाया कि अपने इमाम पर तअना करने की वजह से, इमाम कौन है फ़रमाया कि रब ने फ़रमाया फ़र अलू अल, आयत ।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 28
पार्ट -- 35 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 चौथा बाब 🕋
अक़्वाले मुफ़स्सेरीन व मुहद्देसीन
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तफ़्सीर सावी सूर :कहफ़ वज़्कुर रब्बेका इज़ा नसीता की तफ़्सीर में है~
यानी चार मज़्हबों के सिवा किसी की तक़्लीद जाइज़ नहीं, अगरचे वह सहाबा के क़ौल और सहीह हदीस और आयत के मुवाफिक़ ही हो, जो इन चार मज़्हबों से ख़ारिज है वह गुमराह और गुमराह करने वाला है ।
क्योंकि हदीस व कुरआन के महज़ ज़ाहिरी मानी लेना कुफ़्र की जड़ है।
अहादीस मुस्लिम जिल्द-अव्वल, सफ़ा-54, बाब बयान इन्नद्दीना अन्नसीहतु में है~
तर्जमा तमीम दारी से मरवी है कि हुजूर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि दीन ख़ैर ख़्वाही है हमने अर्ज किया किस की, फरमाया अल्लाह की और उसकी 📖 किताब और उसके रसूल की और मुसलमानों के इमामों की और
आम मोमिनीन की।
इस हदीस की शरह नुववी में है~
तर्जमा यह हदीस उन इमामों को भी शामिल है जो उलमा_ए_दीन हैं और उलमा की ख़ैर ख़्वाही से है उनकी रिवायत की हुई अहादीस का क़बूल करना और उनके अहकाम में तक़्लीद करना और उनके साथ नेक गुमान करना।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 29
पार्ट -- 36 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दूसरी फ़स्ल तक़्लीदे शख़्सी के बयान में 🕋
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मिश्कात किताबुल_इमारह में बहवाला मुस्लिम है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं~
तर्जमा जो तुम्हारे पास आवे हालांकि तुम एक शख्स की इताअत पर मुत्तफ़िक़ हो वह चाहता हो कि तुम्हारी लाठी तोड़ दे और तुम्हारी जमाअत को मुतफ़र्रिक़ कर दे तो उसको कत्ल कर दो! सफ़, 320
इसमें मुराद इमाम और उलमा_ए_दीन हैं क्योंकि हाकिमे वक़्त की इताअत ख़िलाफ़े शरअ में जाइज़ नहीं है।
मुस्लिम ने किताबुल_इमारह में बाब बांधा बाब वजूबे ताअतिल_अमराए फ़ी ग़ैरे मासियतिन.यानी अमीर की इताअत ग़ैर मासियत में वाजिब है इससे मालूम हुआ कि एक ही की इताअत ज़रूरी है।
मिश्कात शरीफ़ किताबुल_बुयूअ़ बाबुल_फ़राइज़ में बरिवायते बुख़ारी है कि हज़रत अबू मूसा अशअरी ने हज़रत इब्ने मअऊद के बारे में ला तरअलूनी मादामा हाज़ल_हिबरू फ़ीकुम जब तक कि यह अल्लामा तुम
में रहें मुझसे मसाइल न पूछो मालूम हुआ कि अफ़ज़ल के होते हुए मफ़्जूल की इताअत न करे और हर मुक़ल्लिद की नज़र में अपना इमाम अफ़्ज़ल होता है।
फ़त्हुल क़दीर में है ।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 29
पार्ट -- 37 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दूसरी फ़स्ल तक़्लीदे शख़्सी के बयान में 🕋
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तर्जमा जो शख्स मुसलमानों की हुकूमत का मालिक हो फिर उन पर किसी को हाकिम बनाए हालांकि जानता हो कि मुसलमानों में इस से ज़्यादा मुस्तहिक़ और कुरआन व हदीस का जानने वाला है तो उसने अल्लाह व रसूल अलैहिस्सलाम और आम मुसलमानों की ख़्यानत की।
मिश्कात किताबुल_इमारह फ़स्ल अव्वल में है मन माता व लैसा फ़ी उनुकिही बैअतुन माता मैतता जाहीलीयतिन जो मर जाए हालांकि उसके गले में किसी की बैअत न हो, वह जहालत की मौत मरा, इसमें इमाम की बैअत यानी तक़्लीद और बैअते औलिया सब ही दाख़िल हैं, वरना बताओ फ़ी ज़माना हिन्दुस्तानी वहाबी किस सुल्तान की बैअत में हैं।
यह तो चन्द आयात व अहादीस थीं, इसके अलावा और भी पेश की जा सकती हैं, मगर इख़्तिसारन इसी पर क़नाअत की गई, अब उम्मत का अमल देखो तो तबा ताबईन के ज़माना से अब तक सारी उम्मते मरहूमा इसी तक़्लीद की आमिल है कि जो खुद मुज्तहिद न हो, वह एक मुज्तहिद की तक़्लीद करे, और इज्मा_ए_उम्मत पर
अमल करना कुरआन व हदीस से साबित है और ज़रूरी है।
कुरआन फ़रमाता है~
तर्जमा और जो रसूल की मुख़ालिफ़त करे बाद इसके कि हक़ रास्ता उस पर खुल चुका और मुसलमानों की राह से जुदा रास्ता चले हम उसको उसकी हालत पर छोड़ देंगे और उसको दोज़ख़ में दाख़िल करेंगे और क्या ही बुरी जगह पलटने की है।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 30
पार्ट -- 38 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दूसरी फ़स्ल तक़्लीदे शख़्सी के बयान में 🕋
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जिस से मालूम हुआ कि जो रास्ता आम मुसलमानों का हो उसको इख़्तियार करना फ़र्ज है और तक़्लीद पर मुसलमानों का इज्मा है।
मिश्कात बाबुल_एतसाम बिल_किताबे वस्सुन्नते सफ़ा-30 में है ~
इत्तबे_उस्सवादल_आज़मा फ़इन्नहू मन शज़्ज़ा शुज़्ज़ा फ़िन्नारे बड़े गरोह की पैरवी करो क्योंकि जो जमाअत मुस्लेमीन से अलग रहा वह अलग करके जहन्नम में भेजा जाएगा, और हदीस में आया है मा रआहुल_मुमिनूना हसनन फ़हुवा इन्दल्लाहे हसनुन जिसको मुसलमान अच्छा जाने वह अल्लाह के नज़दीक भी अच्छा है।
अब देखना यह है कि आज भी और इससे पहले भी आम मुसलमान तक़्लीदे शख़्सी ही को अच्छा जानते आए और मुक़ल्लिद ही हुए, आज भी अरब व अजम में मुसलमान तक़्लीदे शख़्सी ही करते हैं, और जो ग़ैर मुक़ल्लिद हुआ वह इज्मा का मुन्किर हुआ।
अगर इज्तेमा का एतबार न करो तो ख़िलाफ़ते सिद्दीक़ी व फ़ारूक़ी किस तरह साबित करोगे, वह भी तो इज्माए उम्मत से ही साबित हुई, यहाँ तक कि जो शख्स इन दोनों ख़िलाफ़तों में से किसी का भी इन्कार करे वह काफिर
है, देखो शामी वग़ैरह, इसी तरह तक़्लीद पर भी इज्मा हुआ।
तफ्सीर ख़ाज़िन ज़ेरे आयत व कूनू मअस्सादेकीन है कि अबू बकर रज़ि अल्लाहु अन्हु ने अंसार से फ़रमाया कि कुरआन शरीफ़ ने मुहाजिरीन को सादेक़ीन कहा ऊलाइका हुमुस्सादिकून और फिर फरमाया व कूनू मअस्सादेक़ीन सच्चों के साथ रहो, लिहाज़ा तुम भी अलग ख़िलाफ़त न काइम करो, हमारे साथ रहो ऐसे ही मैं ग़ैर मुक़ल्लिदों से कहता हूँ कि सच्चों ने तक़्लीद की है तुम भी उसके साथ रहो मुक़ल्लिद बनो।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 30
पार्ट -- 39 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 दूसरी फ़स्ल तक़्लीदे शख़्सी के बयान में 🕋
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अक़्ली दलाइल ~ दुनिया में इंसान कोई भी काम बग़ैर दूसरे की पैरवी के नहीं कर सकता, हर हुनर और इल्म के क़वाइद सब में उसके माहिरीन की पैरवी करना होती है,
दीन का मामला तो दुनिया से कहीं ज़्यादा मुश्किल है, इसमें भी उसके माहिरीन की पैरवी करना होगी इल्मे हदीस में भी तक़्लीद है कि फ़लां हदीस इस लिए ज़इफ़ है कि बुखा़री ने या फुलां मुहद्दीस ने फुलां रावी को ज़ईफ़ कहा है, उसका क़ौल मानना यही तो तक़्लीद है |
कुर आन की क़िरात में क़ारियों की तक़्लीद है, कि फुलां ने इस तरह इस आयत को पढ़ा है कुरआन के एराब, आयात सब में तक़्लीद ही तो है,
नमाज़ में जब जमाअत होती है तो इमाम की तक़्लीद ही सब मुक़्तदी करते हैं,
हुकूमते इस्लामी में तमाम मुसलमान एक बादशाह की तक़्लीद करते हैं,
रैल में बैठते हैं तो एक इंजन की सारी रेल वाले तक़्लीद करते हैं,
गर्ज़ेकि इंसान हर काम में मुक़ल्लिद है, और ख़्याल रहे कि इन सब सूरतों में तक़्लीदे शख़्सी है, नमाज़ के
इमाम दो नहीं, बादशाह इस्लाम दो नहीं तो शरीअत के इमाम एक शख़्स दो किस तरह मुकर्रर कर सकता है।
मिश्कात किताबुल जिहाद बाब आदाबिस्सफ़र सफ़ा- 339, में है इज़ा काना सलासतुन फ़ी सफ़रिन फ़ल्यूमिरू अहदहुम जबकि तीन आदमी सफ़र में हों तो एक को अपना अमीर बना लें।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 31
पार्ट -- 40 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 पांचवा बाब 🕋
तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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मसलए तक़्लीद पर मुख़ालिफ़ीन के एतराज़ात दो तरह के हैं, एक वाहियात ताने और तमस्खुर उनके जवाबात ज़रूरी तो नहीं, दूसरे वह जिन से मुक़ल्लेदीन को ग़ैर मुक़ल्लिद धोखा देते हैं, और आम मुक़ल्लेदीन धोखा खा लेते हैं, वह हस्बे ज़ैल हैं।
सवाल ~ सहाब_ए_किराम को किसी की तक़्लीद की ज़रूरत न थी, वह तो हुजूर अलैहिस्सलाम की सोहबत की बरकत से तमाम मुसलमानों के इमाम और पेशवा हैं कि अइम्म_ए_दीन इमाम अबू हनीफ़ा व शाफ़ई वग़ैरह रज़ि अल्लाहु तआला अन्हुमा उनकी पैरवी करते हैं।
मिश्कात बाब फ़ज़ाइलुस्सहाबा सफ़ा- 554, में है ~
अस्हाबी कन्नुजूमे फ़बेअय्यिहिम इक़्तदैतुम इहतदैतूम
मेरे सहाबा सितारों की तरह हैं तुम जिनकी पैरवी करोगे हिदायत पा लोगे
अलैकुम बिसुन्नती व सुन्नतिल_ख़ुलफ़ाए अर्राशिदीन मिश्कात यही बाब,, तुम लाज़िम पकड़ो मेरी और मेरे
ख़ुलफ़ा_ए_राशिदीन की सुन्नत को।
यह सवाल तो एसा है जैसे कोई कहे कि हम किसी के उम्मती नहीं, क्योंकि हमारे नबी अलैहिस्सलाम किसी के उम्मती न थे, तो उम्मती न होना सुन्नते रसूलुल्लाह है, इससे यही कहा जाएगा कि हुजूर अलैहिस्सलाम ख़ुद नबी हैं, सब आपकी उम्मत हैं, वह किस के उम्मती होते, हमको उम्मती होना ज़रूरी है, ऐसे ही सहाब_ए_किराम तमाम मुसलमानों के इमाम हैं, उनका कौन मुसलमान इमाम होता।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 31
पार्ट -- 41 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 पांचवा बाब 🕋
तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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नहर से पानी उस खेत को दिया जाएगा जो दरिया से दूर हो।
मुकब्बेरीन की आवाज़ पर वही नमाज़ पड़ेगा जो इमाम से दूर हो, लबे दरिया के खेतों को नहर की ज़रूरत नहीं, सफ़े अव्वल के मुक़्तदियों को मुकब्बेरीन की ज़रूरत नहीं
सहाब_ए_किराम सफ़े अव्वल के मुक़्तदी हैं वह बिला वास्ता सीनए पाक मुस्तफा अलैहिस्सलाम से फ़ैज़ लेने वाले हैं, हम चूंकि इस दरिया से दूर हैं, लिहाज़ा नहर के हाजत मन्द हैं, फिर समुन्दर से भी हज़ारहा दरिया जारी होते हैं जिन सब में पानी तो समुन्दर ही का है, मगर इन सब के नाम और रास्ते जुदा हैं, कोई गंगा कहलाता है कोई जमुना ।
ऐसे ही हुजूर अलैहिस्सलाम, आप रहमत के समुन्दर हैं, इस सीना में से जो नहर इमाम अबू हनीफ़ा के सीना से होती हुई आई उसे हन्फ़ी कहा गया जो इमाम मालिक के सीना से आई, वह मज़हब मालकी कहलाया, पानी
सबका एक है मगर नाम जुदागाना, और इन नहरों की हमें ज़रूरत पड़ी, न कि सहाब_ए_किराम को । जैसे कि हदीस की सनदें हमारे लिए है सहाब_ए_किराम के लिए नहीं।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 32
पार्ट -- 42 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 पांचवा बाब 🕋
तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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सवाल (2) रहबरी के लिए कुरआन व हदीस का़फी़ हैं, इनमें क्या नहीं जो कि फ़िक़्ह से हासिल करें कुरआन फ़रमाता है *व ला रतबिन वला याबिसिन इल्ला फ़ी किताबिम मुबीन* और न है कोई तर और ख़ुश्क चीज़ जो एक रौशन 📖 किताब में लिखी न हो, और बेशक़ हमने कुरआन याद करने के लिए आसान फरमा दिया तो है कोई याद करने वाला, इन आयतों से मालूम हुआ कि कुरआन में सब है और कुरआन सब के लिए आसान भी है, फिर किस लिए मुज्तहिद के पास जावें।
जवाब कुरआन व हदीस बेशक़ रहबरी के लिए का़फ़ी हैं और इन में सब कुछ है मगर इन से मसाइल निकालने की क़ाबलियत होना चाहिए। समुन्दर में मोती हैं मगर उनको निकालने के लिए ग़ोता ख़ोर की ज़रूरत है। अइम्मा दीन इस समुन्दर के ग़ोता ज़न हैं, तिब की 📚 किताबों में सब कुछ लिखा है, मगर हम को हकीम के पास जाना और उससे नुस्ख़ा मुकर्रर कराना ज़रूरी है ।
अइम्म_ए_दीन तबीब हैं, वलक़द यस्सरनल कुरआन में फ़रमाया है कि हमने कुरआन को हिफ़्ज़ करने के लिए आसान किया है न कि इससे मसाइल निकालने के लिए, मगर मसाइल निकालना आसान है तो फिर हदीस की भी क्या ज़रुरत है, कुरआन में सब कुछ है और कुरआन आसान है और फिर कुरआन सिखाने के लिए नबी क्यों आए, कुरआन में है और वह नबी उनको किताबुल्लाह और हिक्मत की बातें सिखाते हैं, कुरआन व हदीस
रुहानी दवाएं हैं इमाम रुहानी तबीब।।।।
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 32
पार्ट -- 43 | ✅ जा_अल_हक़ ✅
🕌 पांचवा बाब 🕋
तक़्लीद पर एतराज़ात और जवाबात के बयान में
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सवाल (3) कुरआने करीम ने तक़्लीद करने वालों की बुराइयां फरमाई हैं फरमाता है उन्होंने अपने पादरियों और जोगियों को अल्लाह के सिवा खुदा बना लिया, फिर अगर तुम में किसी बात का झगड़ा उठे तो उसको अल्लाह और रसूल की तरफ़ रुजू करो और यह कि यही मेरा सीधा रास्ता है तो इस पर चलो और राहें न चलो कि तुमको उसकी राह से जुदा कर देंगी, तो कहेंगे बल्कि हम तो उस पर चलेंगे जिस पर अपने बाप दादा को पाया, इन आयात और इन जैसी दूसरी आयात से मालूम होता है कि अल्लाह व रसूल के हुक्म के सामने इमामों की बात मानना तरीक़_ए_कुफ़्फ़ार है, और सीधा रास्ता एक ही है, चार रास्ता हन्फ़ी, शाफ़ई ,वग़ैरह टेढ़े रास्ते हैं वग़ैरह,
✳️ जवाब~ जिस तक़्लीद की कुरआन करीम ने बुराई फरमाई है उसको हम पहले बाब में ब्यान कर चुके हैं व ला तत्तबेउस सुबुला में यहूदीयत या नस्रानियत वग़ैरह ख़िलाफ़े इस्लाम रास्ते मुराद हैं।
हन्फ़ी, शाफ़ई ,वग़ैरह चन्द रास्ते नहीं, बल्कि एक स्टेशन की चार सड़कें या एक दरिया की चार नहरें हैं, वरना फिर तो ग़ैर मुक़ल्लेदीन की जमाअतें सनाई और ग़ज़्नवी का क्या हुक्म है, चन्द रास्ते होते हैं अक़ाइद बदलने से, चारों मज़्हब के अक़ाइद एक जैसे हैं, सिर्फ आमाल में फुरूई इख़्तिलाफ़ है, जैसा कि खुद सहाब_ए_किराम में
इख़्तिलाफ़ रहा।
सवाल (4) होते हुए मुस्तफा की गुफ़्तार मत मान किसी का क़ौल व किरदार फ़ितना दर दीन नबी अन्दाख़्तन्द।
✳️ जवाब ~ यह शेअर असल में चकड़ालवियों का है,
होते हुए किब्रिया की गुफ़्तार मत मान नबी का क़ौल व किरदार दूसरे शेअर भी इस तरह है।
मस्जिद दो ख़िश्त अलाहिदा साख्तन्द फ़ितना दर दीन नबी अन्दाख़्तन्द।
चार मज़हब का जवाब हमने अपने दीवान में दो शेअरों में इस तरह दिया है।।।। .….......
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📕 जा_अल_हक़ व ज़हक़ल_बातिल
सफ़हा न०- 33
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